Sunday, October 23, 2022

Bhukon ki bebasi kahin pyason ki bebasi _Naseem Azmi

بھوکوں کی بے بسی کہیں پیاسوں کی بے بسی
اخبار میں ہے جا بہ جا لوگوں کی بے بسی

بجتے ہیں گھنگھرو یادوں کے تنہائیوں میں جب
کرتی ہے رقص ہجر کے ماروں کی بے بسی 

منظر ہے کربلا کا نگاہوں کے سامنے 
پانی پہ لکھ رہا ہوں میں پیاسوں کی بے بسی

اک اک کو بخشوائیں گے میدان حشر میں 
آقا سے کب چھپی ہے غلاموں کی بے بسی 

صبح حسین دیکھنے والوں کو کیا پتا 
آنگن میں جلتے بجھتے چراغوں کی بے بسی

رشتے کے انتظار میں اک عمر ڈھل گئی 
کب ختم ہوگی بیٹیوں بہنوں کی بے بسی

سوتے ہیں یہ بھی سب کی طرح فرش خاک پر
مرنے کے بعد دیکھیئے شاہوں کی بے بسی

قربان بچپن اپنا مجھے کرنا پڑ گیا
دیکھی گئی نہ مجھ سے جب اپنوں کی بے بسی

لکھ کر تمام درد میں خاموش ہو گیا
کاغذ پہ چیکھتی رہی لفظوں کی بے بسی

भूकों  की   बेबसी  कहीं  प्यासों  की  बेबसी
अख़बार  में  है  जा-ब-जा लोगों  की  बेबसी 

बजते  हैं  घुँघरू  यादों  के  तन्हाइयों  में जब
करती  है  रक़्स   हिज्र  के  मारों  की  बेबसी 

मंज़र   है   कर्बला   का   निगाहों  के  सामने
पानी  पे  लिख  रहा हूँ मैं प्यासों  की  बेबसी

सुब्ह-ए-हसीन  देखने  वालों  को  क्या  पता
आँगन  में  जलते  बुझते  चराग़ों  की  बेबसी
 
रिश्ते  के   इंतिज़ार  में   इक   उम्र   ढल  गई 
कब  ख़त्म  होगी  बेटियों  बहनों  की  बेबसी

सोते हैं ये भी सब की तरह फ़र्श-ए-ख़ाक पर
मरने   के   बाद    देखिए   शाहों  की  बेबसी

क़ुर्बान  बचपन  अपना  मुझे करना पड़ गया
देखी  गई  न  मुझसे  जब अपनों  की  बेबसी

लिख  कर  तमाम  दर्द  मैं  ख़ामोश  हो  गया
काग़ज़  पे   चीख़ती   रही  लफ़्ज़ों की बेबसी