Monday, April 23, 2018

hamari aankhon ghayab hai nind raaton ki

हमारी  आँखों  से   ग़ायब   है  नींद  रातों की
बहुत   रुलाती  हैं   यादें   गुज़िश्ता  लम्हों की

बिठा रहे हैं  सभी  मुझको  अपनी पलकों पर
निकलने   वाली   है   बारात  मेरे  अश्कों की

कहाँ  तलाश   करूँ    अब्र  अपने  हिस्से  का
उदास   रहती   है   बंजर   ज़मीन  आँखों की

वो कौन  ख़्वाबों में छुप छुप के रोज़ आता है
मैं तहक़ीक़ात करूँगा  अब अपने ख़्वाबों की

मैं  आफ़ताब   को  अब  मुंह  नहीं  लगाऊंगा
मैं जुगनुओं से कर आया हूँ बात ऊजालों की